श्रीधर पंडित (भाग 1)
श्रीधर पंडित
मेरी कहानी श्रीधर पंडित तिन
दोस्तों की कहानी है, जिनके बचपन की खट्टी-मीठी यादें, जीवन के उतार-चढ़ाव को
दर्शाती ये कहानी हमें समाज की कई सच्चाईयों को भी दिखाती है, फैशन हमारे जीवन में
हमारे समाज में किस तरह से हावी है, इसे हास्य रंग में दिखाने की छोटी सी कोशिश की है
मैंने,
आज गर्मी बहुत है,ट्रैफिक जाम है। चारों तरफ से हॉर्न की आवाजें आ रही थी मैंने अपनी कार बंद कर दिया। और कार का सीसा हटा कर इधर-उधर देखने लगा। मेरी नजर थोड़ी दूर पर एक चाय का स्टॉल था, वहाँ बेंच पर बैठे एक आदमी पर पड़ी। मैंने मन में ही कहा -अरे ये तो श्रीधर है। यहाँ कैसे! मैंने मन में ही सोचा। मै अपनी कार को ट्रैफिक से बाहर निकाल कर सड़क के किनारे पार्क किया। और धीरे-धीरे चलता हुआ श्रीधर के पास पहुँचा। मैंने श्रीधर के कंधे पर हाथ रख कर कहा “अरे श्रीधर पंडित जी आप यहाँ।“ श्रीधर अचानक से मुझे सामने देख कर सकपका गया । फिर खुद को सम्हालते हुए चेहरे पर बनावटी हँसी लाते हुए श्रीधर ने कहा “यही कुछ काम था।“ इस बार श्रीधर ने पूछा “और तुम यहाँ कैसे संजीव।“मैंने ने कहा “मेरा ट्रांसफर यही स्टेट बैंक में हो गया है मैनेजर के पद पर।“ श्रीधर ने फिर पूछा “घरवाली कैसी है? “मैंने कहा सब कुछ ठीक हैं, यहाँ सड़क पर ही सब पूछ लोगे या घर भी चलोगे।“ श्रीधर बोला “नहीं मै इधर से ही चला जाऊंगा, बिना वजह तकलीफ होंगी तुम्हारी घरवाली को। “और हंसने लगा। ये हँसी भी बनावटी थी।
दरअसल आज श्रीधर कुछ उदास सा लग रहा था। कपड़े भी गंदे थे। शायद श्रीधर तकलीफ में था, बहुत तकलीफ में। लेकिन मैंने अभी पूछना मुनासिब नहीं समझा, और श्रीधर का हाथ पकड़ते हुए कहा “चल ज्यादा बनने की जरूरत नहीं हैं, और घरवाली को कोई तकलीफ नहीं होंगी, क्योंकि घरवाली बेटी के साथ मायके गयी हुई हैं। “इतना कह कर हँसने लगा। “मायके” श्रीधर ने पूछा।हाँ मैंने कहा “भाई की शादी है इसलिए” और मैंने श्रीधर का हाथ पकड़े हुए अपनी गाड़ी के पास ले आय। फ्लैट में आ गया। मेरा फ्लैट दूसरे फ्लोर पर था। मैंने जेब से चाभी निकाल कर ताला खोला और हमदोनो अंदर आ गए। गर्मी बहुत थी। मैंने दरवाजा बंद कर पर्दा ठीक किया और ए-सी चालू कर दिया। थोड़ी देर में रूम ठंडा हो गया। मैंने अलमारी खोल कर एक धोती निकाली और श्रीधर को देते हुए कहा “ले पकड़ हाथ-मुँह धो ले पहले ,तब तक मैं खाना लगाता हुँ। फिर आराम से बैठ कर बात करेंगे।“ श्रीधर जब हाथ मुँह धो कर आया तब तक मैं ने खाना टेबुल पर लगा लिया।
श्रीधर ने खाना देख कर कहा, “इतनी जल्दी खाना बना भी लिया। सुन संजीव तेरी घरवाली तो बहुत खुश रहती होंगी तेरे से तब तो।” इतना बोल कर हँसने लगा। अभी श्रीधर की हँसी में बनावटीपन नहीं था। मैं भी हँसते हुए कहा, “नहीं यार पत्नी जब नहीं रहती है तो डब्बे वाले को बोल देता हुँ। खाना घर पर पहुँचा देता है।
श्रीधर बोला – अच्छा तो खाना बाहर से मंगा लेते हो।
मैंने कहा – हां बस ऐसा ही समझ लो।
खाना खाते समय श्रीधर बोलता नहीं है ,ये मैं बचपन से जनता हुँ।इसलिए खाना खाते समय मैंने कोई
सवाल नहीं किया। हम दोनों चुप चाप खाना खाने लगे। लेकिन मैंने महसूस किया, श्रीधर भूखा भी था।
मैंने श्रीधर को पहले कभी ऐसे नहीं देखा। बचपन से जनता हुँ मैं श्रीधर को। पता नहीं क्या हुआ है, मैं मन ही मन सोच रहा था। न श्रीधर
कुछ बोल रहा था और ना मेरी हिम्मत थी उससे कुछ पूछने की। खाना खा कर श्रीधर हाथ – मुँह धो कर कमरे में चला गया। मैंने जूठे बर्तन किचन में रखा, पहले से कपड़े मशीन में डाल दिया था मैंने। कपड़े धूल गए थे, कपड़े को मशीन से निकाल कर, सुखने के लिए फैला कर जब मैं कमरे में पहुँचा। मैंने देखा श्रीधर गहरी नींद में सो रहा था।
मैं भी वही सोफे पर लेट गया। लेकिन मेरा मन श्रीधर को लेकर चिंतित था । एक मन कर रहा था गाँव फ़ोन लगा कर पूछूँ क्या बात है, फिर रोक लिया खुद को मैंने। श्रीधर और मैं एक ही गाँव के रहने वाले है। श्रीधर मेरे बचपन का दोस्त है।
श्रीधर पाठक मेरे बचपन का दोस्त है। हम दोनों की दोस्ती गाँव में ही नहीं बल्कि आस - पास के इलाके में प्रसिद्ध थी। इसके कई कारण है इनमें से एक कारण तो ये है की हम दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ था। श्रीधर पंडित के घर और मैं राजपूत। और भी कई इत्तफाक है हम में इनमें से एक ये भी है की हम दोनों के घर आस – पास है। घर आस - पास होने के कारण मेरे पिता जी ओर श्रीधर के पिता जी दोनों दोस्त थे। अकसर पड़ोसियों में तू – तू मैं - मैं हो जाता है परन्तु श्रीधर के परिवार से हमारे परिवार का कभी तू - तू मैं – मैं नहीं हुआ। इसका कारण उनका पंडित होना था। क्यों की हमारे गाँव में एक ही पंडित परिवार था। पूरा गाँव ही श्रीधर के परिवार की इज्जत करता था। कहते है। कहते है मेरे दादा जी के पिता जी ने मंदिर बनवाया था उसी समय उन्होंने ने श्रीधर के परिवार को काशी से ले कर आये थे। और गाँव में बसाया था। यही कारण था की श्रीधर के पिता जी भी मेरे पिता जी की बहुत इज्जत करते थे। और यही वजह थी की जब मेरे और श्रीधर की दोस्ती प्रसिद्ध हुई तो लोग मुझे राजा और श्रीधर को मेरा मंत्री बोलते थे। चुकी मेरे पिता जी गाँव के मुखिया थे। मेरे पिता जी और श्रीधर के पिता जी जहाँ भी जाते एक साथ रहते थे। इस कारण भी हम दोनों की जोड़ी राजा – मंत्री, के नाम से प्रसिद्ध थी। बचपन और दोस्ती समाज के हर नियम से ऊपर होती है। जात – पात, ऊंच – नीच, धर्म – अधर्म से परे होता है। ऐसे ही हम दोनों की दोस्ती हो गयी थी। हम दोनों एक साथ एक ही स्कूल में जाने लगे। जो गाँव के बाहर स्थित था। ये स्कूल भी मेरे पिता जी और श्रीधर के पिता के सहयोग से खुला था। आस – पास के गाँव के बच्चे भी इसी स्कूल में पढ़ने आते थे। आस पास के गाँव में भी कोई स्कूल नहीं था। यहां हमारी दोस्ती छुट्टन लोहार से हुई।
छुट्टन का नाम याद आते ही मैं मन ही मन हँस पड़ा। छुट्टन के साथ हमारी दोस्ती हुई। तब सारे दोस्त ये बोलने लगे की – राजा, मंत्री, और ये देखो इनका सेनापति भी आ गया। परन्तु मेरे सेनापति के नाम को ले कर काफ़ी दिनों तक दुविधा राही , जिसका कारण उसकी माता जी थी। छुट्टान का करेक्टर जितना इंट्रेस्टिंग है उससे ज्यादा उसकी माता जी का करेक्टर है -
फिर भी फिल्मी नामों का सिलसिला बंद नहीं हुआ। हर दो से चार दिन में छुट्टन का नाम बदलते ही थे, और स्कूल के बच्चे छुट्टन को छुट्टन नाम से ही बुलाते थे। फिर क्या था छुट्टन की माताजी फिर पहुंच गई शिकायत लेकर मेरे पिताजी मुखिया जी के पास। मुखिया जी के पास जाकर बोली – सर जी को छोड़कर स्कूल के सारे बच्चे मेरे बेटे को छुट्टन नाम से ही बुलाते हैं, केवल मास्टर जी ही है, जो मेरे बेटे को नाम से बुलाते हैं। आपकी बड़ी मेहरबानी होगी मुखिया जी अगर आप स्कूल चलकर सभी बच्चों को यह बोल दे कि मेरे बेटे को नाम से बुलाए। छुट्टन बोल कर ना बुलाए। आपकी बात तो आसपास के गांव के लोग भी मानते हैं। यह तो स्कूल के बच्चे हैं।
मुखिया जी छुट्टन की माताजी को घूर कर देखते है। छुट्टन की माता जी बड़े ही सादगी और मासूमियत से दोनों हाथ जोड़ कर खड़ी थी। पास ही में आठ साल का छुट्टन हाथ में कॉपी लिए खड़ा था। थोड़ी देर चुप रहने के बाद मुखिया जी बोले – चालो , मुझे भी उधर से ही शहर किसी काम से जाना है, स्कूल में बोलते हुए चला जाऊंगा की तुम्हारे बेटे को छुट्टन कह कर ना बुलाया करें उसे नाम से बुलाया करें। इतना बोल कर मुखिया जी चल दिए स्कूल की तरफ। आगे-आगे मुखिया जी और पीछे-पीछे छुट्टन की माताजी छुट्टन का हाथ पकड़े हुए। जैसे ही मुखिया जी स्कूल पहुंचे,मास्टर जी, हेड मास्टर जी सभी ने हाथ जोड़कर मुखिया जी का अभिवादन किया। मुखिया जी हंसते हुए सभी का अभिवादन करते हैं। कुर्सी पर बैठते हुए मुखिया जी ने छुट्टन की माताजी को आवाज लगाई कहा- आओ अंदर आ जाओ। छुट्टन की माताजी छुट्टन का हाथ पकड़े हुए अंदर आ जाती हैं। मुखिया जी हंसते हुए बोलते हैं- मास्टर जी आप लोगों के खिलाफ शिकायत आई है।
मास्टर जी बोले क्या शिकायत आयी है?
मुखिया जी बोले इनकी शिकायत है कि आपके स्कूल में इनके बेटे को नाम से नहीं बुलाकर छुट्टन कह कर बुलाते हैं। ये गलत बात है मास्टर जी। जबकि इनके बेटे का नाम छुट्टन नहीं है।
हेड मास्टर जी बोले- तो इनके बेटे का क्या नाम है?
मुखिया जी बोले -इनके बेटे का नाम मनोज कुमार है। छुट्टन की माताजी तपाक से बोली नहीं-नहीं मुखिया जी अब यह नाम मुझे पसंद नहीं है, अब मैंने अपने बेटे का नाम बदल दिया है। मुखिया जी आश्चर्य से छुट्टन की माता को देखते हैं और बोलते है – अरे पिछले महीने ही तो तुमने अपने बेटे का नाम मनोज कुमार रखा था।
हेड मास्टर जी बोले - मुखिया जी वह पिछले महीने रखा था अभी उन्होंने अपने बेटे का नाम राजेंद्र कुमार रख दिया है।
तभी दूसरे मास्टर जी बोले( जो छुट्टन के वर्ग शिक्षक भी थे) - नहीं नहीं सर अभी उन्होंने अपने बेटे का नाम बदलकर दिलीप कुमार रख दिया है।
छुट्टन की माताजी हंसते हुए बोली- देखा मुखिया जी मैंने कहा था ना केवल यही मास्टर जी हैं जो मेरे बेटे को नाम से बुलाते हैं। बाकी सारे लोग छुट्टन कह कर बुलाते है। सभी लोग कभी मास्टर जी को देख रहे थे तो कभी छुट्टन की माता जी को। और मास्टर जी मंद-मंद मुसकुरा रहे थे।
मुखिया जी छुट्टन की माताजी से बोले- तुम घर जाओ मैं मास्टर जी को समझा देता हुँ। कि तुम्हारे बेटे को नाम से बुलाया करें छुट्टन बोलकर ना बुलाया करें। छुट्टन की माता जी सभी को प्रणाम कर घर चली जाती हैं।
मुखिया जी ने मास्टर जी से पूछा – ये नाम का क्या चक्कर है मास्टर जी और यह कैसा जादू है कि आपको नाम पता चल जाता है और बाकी किसी को नहीं?
मास्टर जी बोले - यह चक्कर तो हम सब का चक्कर है मुखिया जी,
मुखिया जी आश्चर्य से बोलते हैं- मतलब!
मास्टर जी बोले सिनेमा या फैशन का यहां सभी को चक्कर है मुखिया जी, और छुट्टन की माताजी को फिल्मी नाम का चक्कर है, किसी को कपड़ों का, तो किसी को बालों का चक्कर है। अभी नंदलाल जी को देखिए उन्होंने अपने बेटे का सर मुंडवा दिया केवल बीच में बाल है तो उनकी माता जी से मैंने पूछा यह कैसा बाल कटवा दिया है हैं आपने अपने बेटे का तो उनकी माताजी ने कहा यह हनीकट है कोई लंबे बाल रखता है और बोलता है यह संजय दत्त कट है और कोई बीच मांग रखता है और बोलता है यह तेरे नाम कट है सभी को फैशन की बीमारी है तो फिर छुट्टन की माताजी को मैं कैसे बोलूं। क्या समझाऊँ।
मुखिया जी बोले – ये तो आप सही बोल रहे है सर।
मुखिया जी हंसते हुए बोले - यह सब तो ठीक है मास्टर जी पर यह बताइए कि आपको यह कैसे पता चल जाता है कि छुट्टन की माताजी कल छुट्टन का क्या नाम रखने वाली है।
मास्टर जी बोले - यह कोई जादू नहीं है मुखिया जी, दरअसल मैं जिस रास्ते घर से स्कूल और स्कूल से घर आता जाता हुँ उसी रास्ते में वीडियो हॉल है। जिस दिन पोस्टर बदल जाता है और उस सिनेमा का जो हीरो होता है वही नाम अगले दिन छुट्टन का नाम होता है। इतना सुन कर सभी लोग एक साथ हंसने लगे।
छुट्टन के साथ हम सब भी हँसते – खेलते बड़े हो गए। अब हमारे मैट्रिक बोर्ड के फार्म भरने का समय आ गया। मास्टर जी ने खास कर छुट्टन को बुला कर कहा – सुनो छुट्टन, अपनी माताजी से एक अच्छा सा नाम पूछ कर आना क्योंकि इस फॉर्म में जो नाम भर दोगे वही नाम आजीवन रहेगा यह नाम बदलेगा नहीं समझ गए। छुट्टन ने अपनी माता जी से कहा – माँ मास्टर जी ने एक अच्छा सा नाम लिख कर माँगा है मैट्रिक के फार्म में भरना है। इस फार्म में जो नाम भरेंगे वही नाम आजीवन रहेगा ऐसा बोले है मास्टर जी।
छुट्टन की माताजी ने 50 - 60 फिल्मी हीरो का नाम एक कागज पर लिखकर छुट्टन को दे दिया और बोली यह सारे नाम मुझे पसंद है इनमें से एक अच्छा सा नाम चुनकर फार्म में भर देने के लिए बोल देना मास्टर जी को। छुट्टन कागज को पॉकेट में रख लेता है छुट्टन भी या बड़ा हो गया था। सभी ने फार्म भर दिया। मैंने भी फॉर्म भर दिया,लेकिन सारे बच्चे ही नहीं मास्टर जी भी उत्सुक थे कि छुट्टन ने फार्म पर अपना नाम क्या भरा है। आखिर मास्टर जी ने पूछ ही लिया- सुनो छुट्टन तुमने फोरम पर क्या नाम लिखा है। उसने जवाब दिया छुट्टन लोहार। क्लास के सभी लोग एक साथ हंस पड़े। इतना सुनकर श्रीधर बोल पड़ा। लोहार क्यों लिखा बे, छुट्टन ने तपाक से कहा आपने भी तो अपना नाम श्रीधर पाठक लिखा है और संजीव भैया ने भी अपना नाम संजीव चौहान लिखा है तो मैंने भी अपना नाम छुट्टन लोहार लिख दिया और भैया यही मेरी पहचान भी है। मास्टर जी भी हंसने लगे। मैंने कहा बात कुछ भी हो लेकिन अंततः मेरे सेनापति का नामकरण संस्कार हो गया। छुट्टन लोहार। मास्टर जी के साथ-साथ क्लास के सभी बच्चे एक साथ हंसने लगे।
This story is written by Alpna singh- मेरा नाम अल्पना सिंह है ,मै स्नातक पास हु ,इस कहानी को मैंने लिखा है ,ये कहानी आप लोगो को कैसा लगा कमेंट कर जरुर बताईये , ये मेरी नावेल श्रीधर पंडित का छोटा भाग है , ये कहानी गाव के पृष्टभूमि को दर्शाती है ,आगे के कहानी के लिए मेरे ब्लॉग से जुड़े रहिये https://www.mystoriess.com/ से और कमेंट कर जरुर बताईये मेरी कहानी कैसी लगी ,
Very nice story
ReplyDeleteCan't wait for the second part love it 🙂❤️❤️❤️😊😊
Keep it up 😊😊
Updated fast as fast possible i am excited 🥳🥳🥳🥳🥳
Thanks
DeleteVery nice stoty
DeleteVery
ReplyDeleteVery nice story keep it up
ReplyDeleteNice story
ReplyDeletenice story and waiting for its full version, very good अल्पना सिंह keep it up
ReplyDeletethanks sir
DeleteNice story plz apload part 2 soon
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteNice story Mam....You have done Grt job and it is much appreciated.. plz keep it up ....you are one diamond who is found in crores......thx again
ReplyDeleteVery nice and impressive story. Liked it. Keep writing with same enthusiasm. Waiting for the next onw. Best of Luck.
ReplyDeletethanks sir
DeleteThik hai story but second part
ReplyDeletevery nice story please upload second part as much as possible
ReplyDeleteVery nice story
ReplyDeleteNice…
ReplyDeleteNice 👍
ReplyDeleteVery nice story ….keep it up !!!!
ReplyDeleteNice story didi
ReplyDeletethanks babu
DeleteAppreciated
ReplyDeleteBhadiya story hai
ReplyDeleteWaiting for next part
Very nice stories. .. Keep it up ... Good luck for next one waiting for that one ...
ReplyDeleteNice story
ReplyDelete👍👍
ReplyDeleteकहानी का मूल भाव :
ReplyDelete1. दोस्ती और संबंधों की मजबूती: संजीव और श्रीधर की दोस्ती की गहरी और सच्ची बंधन को दर्शाती है, जो समय और परिस्थितियों के बावजूद कायम रहती है।
2. समाज और फैशन का प्रभाव: कहानी में फैशन और सिनेमा के प्रभाव को हास्य रंग में प्रस्तुत किया गया है, विशेष रूप से छुट्टन की माताजी के चरित्र के माध्यम से। यह दिखाता है कि कैसे लोग समाज में मान्यता और पहचान के लिए फैशन और ट्रेंड्स का पालन करते हैं।
3. वास्तविकता का सामना: संजीव द्वारा श्रीधर की वर्तमान स्थिति को पहचानना और उसकी मदद करने की कोशिश करना यह दर्शाता है कि दोस्ती और मानवीय संबंधों में सहानुभूति और समर्थन का कितना महत्व है।
4. पहचान और आत्म-स्वीकृति: छुट्टन के नामकरण की कहानी यह दिखाती है कि अंततः अपनी असली पहचान को स्वीकार करना ही सबसे महत्वपूर्ण है। छुट्टन ने अपने नाम को फिल्मी नामों से बदलने के बजाय अपने वास्तविक नाम को स्वीकार किया।
कहानी में हास्य और सामाजिक टिप्पणी के माध्यम से मानवीय संबंधों और पहचान की महत्ता को बड़े ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया गया।