अन्धविश्वास-2

 

अन्धविश्वास-2        




पूर्णिमा- “देव, क्या बात है? आज तुमने फिर से सारा किचन गंदा छोड़ दिया!"
देव गुस्से से- “वैभवी, तुम्हारा ये रोज-रोज देर से आना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। तुम्हें अब अपने काम से इस्तीफा दे देना चाहिए।
पूर्णिमा- "क्यों? मैं क्यों दूं इस्तीफा, तुम दे दो!"
देव गुस्से से चीखते हुए "मैं इस्तीफा दे दूं और घर पर तुम्हारे लिए खाना बनाऊं?"
पूर्णिमा आँखे तरेरते हुए "हां, तो मुझे भी तो तुम यही करने के लिए बोल रहे हो न?"
देव गुस्से से पैर पटकते हुए बोला, "पहले के लोग सही कहते थे कि औरतों को ज्यादा पढ़ाना नहीं चाहिए, ज्यादा पढ़-लिखकर औरतें सर पर ही बैठ जाती हैं।"

देव की इस बात ने वैभवी के गुस्से को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। वैभवी ने गुस्से में अपने हाथों में पकड़ी कलछी को फर्श पर पटक दिया और लगभग चीखते हुए बोली, "अच्छा तो तुम अपनी बेटी को..." अभी वैभवी ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि दरवाजे की बेल बज उठी। "ट्रिंग...ट्रिंग!" वैभवी की आवाज गले में ही अटक गई, लेकिन उसका गुस्सा अब भी उसके चेहरे पर साफ नजर आ रहा था। हालांकि, वैभवी की आधी बात सुनकर देव को अंदाजा हो गया था कि वह क्या बोलने वाली थी, और शायद अपनी गलती का अहसास होने पर देव बिना कुछ बोले दरवाजा खोलने चला गया।

देव दरवाजा खोलता है तो एक 30-32 साल की औरत खड़ी थी, जो देखने में गांव की ही लग रही थी। देव ने उस औरत से पूछा, "जी, बोलिए, आपको किससे मिलना है?"
"
वैभवी दीदी से," औरत ने धीरे से कहा।
"
वैभवी से?" देव ने आश्चर्य से अपनी आंखें सिकोड़ी।
इस बीच वैभवी भी किचन से निकलकर दरवाजे पर देव के पीछे आ खड़ी हुई थी। वह औरत को देखकर थोड़ी देर के लिए असमंजस में पड़ गई। वैभवी को वह औरत का चेहरा जाना-पहचाना सा लग रहा था, लेकिन वह याद नहीं कर पा रही थी कि उसने उसे कहां देखा है। फिर औरत ने वैभवी के असमंजस को भांपते हुए कहा, "वैभवी दीदी, आप मुझे पहचान नहीं रही हैं, मैं पूर्णिमा।"
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पूर्णिमा!" यह नाम सुनते ही वैभवी खुशी से उछल पड़ी और बोली, "अरे, पूर्णिमा! तुम कितने दिन बाद मिल रही हो! लगता है, तुम्हारी शादी के बाद दूसरी बार ही देख रही हूं तुम्हें।"
"
हां दीदी, मैं बहुत दिनों बाद इधर आई हूं," पूर्णिमा बोली।
वैभवी खुशी से पूर्णिमा को गले लगा लेती है। फिर वैभवी दरवाजे से बाहर झांक कर देखती है और बोलती है, "अकेले आई हो, क्या मेहमान नहीं आए?"
यह सुनकर पूर्णिमा का चेहरा उतर जाता है, और इससे पहले कि वह कुछ बोलती, देव बोल पड़ता है, "अरे, सारी बातें यहां दरवाजे पर ही कर लोगी? पूर्णिमा को घर के अंदर आने तो दो।"

देव की बात सुनकर वैभवी भी हां में हां मिलाते हुए कहती है, "हां, हां, पूर्णिमा अंदर तो आओ।" फिर वह पूर्णिमा का हाथ पकड़कर अंदर ले आती है और सोफे पर बैठाकर कहती है, "तू बैठ, मैं तेरे लिए कुछ खाने के लिए लाती हूं।"
देव हंसते हुए कहता है, "अरे तुम दोनों बहन-बैठकर बातें करो, मैं तुम दोनों के लिए चाय बना कर लाता हूं।"
वैभवी ने एक नजर देव की तरफ देखा, जो मुस्कुराते हुए कुछ इशारा करता है। वैभवी कुछ नहीं बोलती, बस वहीं सोफे पर बैठ जाती है और पूर्णिमा से बात करने लगती है।

"और सुना, शादी के बाद तूने तो सबको भुला ही दिया। मैं कई बार मामा जी के घर गई, लेकिन तुझसे मुलाकात नहीं हो पाई," वैभवी बोलती है।
"
हां, दीदी, मैं अपने घर भी बहुत कम जाती हूं," पूर्णिमा हंसते हुए कहती है।
"
और सुना, इतने दिन बाद मेरी याद कैसे आ गई? और जीजा जी क्यों नहीं आए?"
यह सुनकर पूर्णिमा के आंखों में आंसू आ जाते हैं। वह रुंधे गले से कहती है, "वैभवी दीदी, मुझे मेरे ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया है।"

पूर्णिमा की बात सुनकर वैभवी चौंक जाती है और चौंकते हुए कहती है, "व्हाट! घर से निकाल दिया? ऐसे कैसे निकाल दिया? क्या हुआ? तू मुझे सारी बात बताओ।"
पूर्णिमा रोते हुए कहती है, "दीदी, आपको तो पता है की अभी अभी नन्हे (पूर्णिमा के छोटे भाई) की शादी थी, मैं अपना सारा जेवर ले कर अपने मायके में अपने भाई की शादी में आई थी..."
वैभवी अपना सर हिलाते हुए- हां, पता है मुझे, मेरी भी ननद की शादी उसी दिन थी, इसीलिए मैं नहीं जा पाई थी, लेकिन तू पहले चुप हो जा, रो मत, और बता क्या हुआ नन्हे की शादी में?"
पूर्णिमा रोते हुए कहती है, "तो दीदी नन्हे की पत्नी ने मेरा सारा जेवर चुरा लिया।"

यह सुनकर वैभवी एकदम शॉक हो जाती है, "नन्हे की पत्नी ने तुम्हारा जेवर चुरा लिया? उस नयी नवेली दुल्हन ने? तो जब तुम्हें पता चल ही गया तो मांग लेती अपना जेवर?"
पूर्णिमा कहती है, "मैंने देखा नहीं, दीदी, नहीं तो मैं मांग लेती। और बात इतनी बढ़ती ही नहीं।"
वैभवी अपनी आंखें सिकोड़ कर कहती है, "मतलब? तुमने देखा नहीं तो केवल शक के आधार पर यह कह रही हो कि नन्हे की पत्नी ने तुम्हारा जेवर चुरा लिया? और तुम्हें नन्हे की पत्नी पर ही शक क्यों है?"
पूर्णिमा जवाब देती है, "सास ने एक गुनी बाबा से सगुन कराया और उस बाबा ने बताया कि नन्हे की पत्नी(मेरी भाभी) ने चोरी की है।"

यह सुनकर वैभवी का दिमाग चकरा जाता है। उसने गुस्से से कहा, "वेट, वेट, पूर्णिमा, मुझे सब शुरू से बताओ, कब, कैसे, क्या हुआ?"
पूर्णिमा एक लंबी सांस लेते हुए बताती है, "देखिए दीदी, नन्हे अपने छोटे भाई की शादी में मैं अपना सारा जेवर लेकर अपने मायके आई थी, और फिर शादी खत्म होते ही मैं अपने घर वापस चली गई। वहां जाकर देखा तो मेरे जेवर मेरे बैग से गायब थे।"
वैभवी इनक्वायरी वाले अंदाज में पूछती है, "तो तुम जब अपने घर वापस जा रही थी तो जेवर कहां रखे थे?"
पूर्णिमा जवाब देती है, "अपने बैग में अच्छे से, याद है मुझे।"

वैभवी आगे पूछती है, "अच्छा, फिर तुम अपने घर के लिए निकल रही थी, तो तुम्हारे साथ कौन था? जीजा जी?"
पूर्णिमा कहती है, "नहीं, दीदी, इनको कुछ काम था, इसलिए ये बारात से ही वापस घर लौट गए थे। मैं दो दिन बाद ट्रेन से घर वापस गई थी और मुझे नन्हे ने ही ट्रेन पर बैठाया था।"
वैभवी पूछती है, "तुम ट्रेन से अकेले घर वापस गई, और तुम्हें अपने ससुराल में जाकर पता चला कि तुम्हारा जेवर बैग से गायब है?"
पूर्णिमा कहती है, "हां, चार दिन बाद फुआ सास के घर शादी में मुझे जाना था, तब मैंने बैग खोला तो उसमें जेवर नहीं थे।"

वैभवी सख्त आवाज में पूछती है, "तो तुम्हें चार दिन बाद पता चला कि तुम्हारा जेवर चोरी हो गया? फिर तुमने क्या किया?"
पूर्णिमा कहती है, "मैंने अपने मायके में फ़ोन लगा कर अपनी मां को गहने चोरी होने की सारी बात बताई। फिर मेरी माँ ने अपने किसी पहचान वाले बाबा से सगुन कराया और मुझे फोन कर बोली की मेरा जेवर मेरी देवरानी ने चुराया हैं

वैभवी अपनी दोनों आँखे सिकोड़ कर अच्छा- “तो तुम्हरा जेवर तुम्हारे बैग में नहीं हैं तुम्हें मायके में नहीं ससुराल में जा कर पता चला,”

पूर्णिमा मासूम सा फेस बना कर- “हाँ,”                                          

वैभवी कुछ सोचते हुए- “तो पूर्णिमा हो सकता हैं की तुम्हारा जेवर तुम्हारे ससुराल में ही चोरी हुआ हो,”

पूर्णिमा रुंधे गले से- मैंने अपनी सासु माँ से इस बारे में बात की, और मेरी देवरानी से मेरी लड़ाई भी हो गयी,

वैभवी- फिर क्या हुआ?                   

पूर्णिमा- फिर मेरी सासु माँ अपने किसी गुनी बाबा से सगुन कराया और बोली कि मेरा जेवर नन्हे मेरे छोटे भाई की पत्नी ने चुराया है।"

वैभवी अपना मुहं बनाते हुए- ये तो होना ही था तुम्हारी मम्मी ने उनकी बहु के उपर चोरी का इल्जाम लगाया तो तुम्हारी सासु माँ तुम्हारी भाभी पर ही इल्जाम लगाएगी,

पूर्णिमा थोडा गुस्से से- “लेकिन दीदी मुझे भी पूरा शक नन्हे अपने छोटे भाई की पत्नी पर ही हैं,”

वैभवी अपनी भवों को उपर चढाते हुए- “क्यों तुम्हें उस नयी नवेली दुल्हन पर ही क्यों शक हैं अपनी देवरानी पर क्यों नहीं, आखिर तुम्हारा जेवर तो ससुराल से ही गायब हुआ ना,”
पूर्णिमा आत्मविश्वास से कहती है, क्यों कि दीदी, मेरी शादी को 18 साल हो गए। अगर मेरी देवरानी को मेरा जेवर चुराना होता तो पहले ही चुरा लेती न? आज क्यों चुरायेगी भला"
वैभवी सिर हिलाते हुए कहती है, "तर्क तो तुम्हारा बिल्कुल सही है, पूर्णिमा, तुम्हारी देवरानी ने जेवर नहीं चुराया है, तो तुम बिना सोचे-समझे और बिना सबूत के नन्हे की पत्नी उस नयी नवेली दुल्हन पर भी ऐसा इल्जाम नहीं लगा सकती हो।"
पूर्णिमा गुस्से से कहती है, "लेकिन दीदी, गुनी बाबा ने गारंटी के साथ बोला है कि नन्हे की पत्नी ने चुराया है!"

पूर्णिमा के मुहं से इस गुनी बाबा का नाम सुनते ही वैभवी गुस्से से उबल पड़ी- “दोबारा अगर तुमने गुनी बाबा, सगुन बाबा का नाम लिया ना तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा,”

वैभवी गुस्से से- “इन बाबा ढाबा के चक्कर में तुमने खुद अपना घर बिगड़ लिया, एक तो तेरा जेवर चला गया और इन बाबाओ के चक्कर में तुम ना मायके की रही और ना ही ससुराल की, मायके के सगुन बाबा बोलते हैं की ससुराल में गहना चोरी हुआ हैं और ससुराल के गुनी बाबा बोल रहे हैं की गहना मायके में चोरी हुआ हैं और तू इस गुनी बाबा और सगुन बाबा के कहने पर कभी अपनी देवरानी से तो कभी अपनी भाभी से लड़ती रह, जेवर तो तुझे मिलने से रहा,”

वैभवी बात सुन कर पूर्णिमा- “अब मैं क्या करू दीदी मेरी सासु माँ तो जिद में हैं की मैं अपने मायके अपनी भाई की पत्नी से जेवर मांग कर लाऊ, नहीं तो वो मुझे घर में घुसने नहीं देंगी,”

वैभवी गुस्से से- “ऐसे कैसे घुसने नहीं देगी, तेरी सासु माँ की तो ये सब चाल हैं, गहने चोरी हो गए तो तू अपने मायके से सारे जेवर ले कर आ, 10-15 लाख के जेवर वो नयी नवेली दुल्हन कहाँ से ला कर देगी भला,”

गुनी बाबा सगुन की बात सुनकर वैभवी का पेशेंस जवाब दे गया। गुस्से से उसके चेहरे पर एक तीव्रता आ गई, और उसने लगभग चीखते हुए कहा, “एकदम चुप! अगर तुमने दोबारा गुनी बाबा सगुन का नाम लिया न, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा! देखो, इन्हीं अंधविश्वासों में पड़कर तुमने अपनी यह हालत बना ली है। ना ससुराल की हो, ना अपने मायके की! ससुराल वालों ने तुम्हें घर से निकाल दिया और तुम्हारे मायके वालों ने भी तुम्हें सहारा नहीं दिया, तभी तुम मेरे दरवाजे पर आई हो! यह जो तुम दर-दर की ठोकरें खा रही हो न, यही सब इस अंधविश्वास के कारण है! अब चल, जैसा मैं बोलती हूं, वैसा कर।"

पूर्णिमा (चौंकते हुए): "कहाँ चलने के लिए बोल रही हो आप?"

वैभवी (निर्णयात्मक अंदाज में): "पुलिस स्टेशन।"

पूर्णिमा सकपकाते हुए कहती है, "पुलिस स्टेशन? लेकिन दीदी..."

वैभवी (कहते हुए उसकी बात काटते हुए): "लेकिन-वेकिन कुछ नहीं! अब जो भी होगा, वो पुलिस ही करेगी! मेरी फिलिंग कहती है कि तुम्हारा जेवर ना तो तुम्हारी देवरानी ने चुराया है, और न ही नन्हे की पत्नी ने। तुम्हारा जेवर ट्रेन में चोरी हुआ है, और अब पुलिस ही इसकी जांच करेगी और चोर को पकड़ेगी। और वैसे भी, तुम्हारे ससुराल वालों को तुम्हें घर से निकालने का कोई हक नहीं था।"

पूर्णिमा कुछ नहीं कहती, बस चुपचाप वैभवी के पीछे-पीछे चल देती है। देव उन्हें दरवाजे पर खड़ा देखता रहता है, लेकिन कुछ नहीं बोलता।

वैभवी, पूर्णिमा को लेकर पुलिस स्टेशन पहुंचती है और पूरी कहानी पुलिस इंस्पेक्टर को बताती है।

पुलिस इंस्पेक्टर (पूर्णिमा से पूछते हुए): "कितनी तारीख को आप ट्रेन से अपने घर लौट रही थीं?"

पूर्णिमा: "4 तारीख को।"

पुलिस इंस्पेक्टर: "किस ट्रेन से वापस आ रही थीं आप?"

पूर्णिमा: "बुधपूर्णिमा से।"

पुलिस इंस्पेक्टर (पूछते हैं): "क्या आपके पास आपके जेवर की कोई तस्वीर है?"

पूर्णिमा अपना मोबाइल निकालकर एक तस्वीर दिखाती है, जिसमें वह सारे जेवर पहने हुए होती है।

पुलिस इंस्पेक्टर (कांस्टेबल से): "सुरेश, इस तस्वीर को अपने मोबाइल में ले लो।"

कांस्टेबल सुरेश आगे बढ़कर पूर्णिमा के मोबाइल से फोटो अपने मोबाइल पर भेज लेते हैं। जैसे ही वह तस्वीर देखता है, वह चौंक जाते हैं और कहते हैं, "सर, अभी जो हमने जेवर दुकान पर रेड मारी है, उसमें कुछ जेवर इस तस्वीर वाले जेवर से मैच हो रहे हैं।"

पुलिस इंस्पेक्टर: "अच्छा! ले जाओ, पूर्णिमा जी को और इनसे पहचान करवाओ।"

कांस्टेबल सुरेश तुरंत कुछ जेवर लेकर आता है और पूर्णिमा से दिखाता है। पूर्णिमा अपनी आँखों से उन जेवरों को पहचान लेती है।

कुछ देर बाद, पुलिस इंस्पेक्टर एक लाकअप में बंद आदमी को दिखाते हुए पूछते हैं, "पूर्णिमा जी, क्या आपने इस आदमी को उस दिन ट्रेन में देखा था?"

पूर्णिमा फौरन उसे पहचान लेती है और कहती है, "हां, हां! इंस्पेक्टर साहब, यह बिलकुल मेरे सामने वाली सीट पर बैठा था।"

इंस्पेक्टर साहब हंसते हुए कहते हैं, "पूर्णिमा जी, इसी ने आपके जेवर चुराए थे। इसे हमने आज सुबह ही इस जेवर के साथ पकड़ा है। यह ट्रेनों में चोरी करता है। यह हमेशा अपने पास चाबी का गुच्छा रखता है, और हर किसी के बैग के ताले में चाबी लगाकर देखता है। फिर मौका मिलते ही ताला खोलकर बैग से सब कुछ निकाल लेता है।"

पुलिस इंस्पेक्टर: "चिंता मत कीजिये, आपके जेवर आपको मिल जाएंगे। आप अपने पति के साथ आईए, और इनसे अपने जेवर पहचानकर ले जाइए।"

पूर्णिमा वैभवी की तरफ देखती है और कुछ बोलने के लिए मुंह खोलने ही वाली थी, तभी वैभवी गुस्से से बोल पड़ती है, "चल, अब पहले अपनी देवरानी और नन्हे की पत्नी से माफी मांग, और जीजा जी को फोन कर के जल्दी से यहां बुला लो।"

पूर्णिमा धीरे से सिर हिलाते हुए अपने पति और भाई नन्हे को फोन करती है। कुछ ही देर में, पूर्णिमा का पति और भाई पुलिस स्टेशन पहुंच जाते हैं। वे अपने जेवर पहचानकर ले जाते हैं, और पूर्णिमा अपने भाई और भाभी से माफी मांगकर, अपने पति के साथ खुशी-खुशी अपने ससुराल लौट जाती है।

वैभवी भी राहत की सांस लेती है, और खुशी-खुशी अपने घर की ओर चल देती है। वैभवी को जेवर मिलने से ज्यादा खुशी इस बात की थी कि पूर्णिमा का घर टूटने से बच गया। यह खुशी थोड़ी देर ही रही, क्योंकि जैसे ही वैभवी घर के लिए ऑटो में बैठी, उसे सुबह की घटना याद आ गई। वह मन ही मन सोचने लगी, "पता नहीं घर पर देव क्या हंगामा करने वाला है।"

लेकिन जब वैभवी घर पहुंची, तो उसका सामना एक बदलते हुए माहौल से हुआ। पूरा घर साफ-सुथरा था, डाइनिंग टेबल पर खाना सजा हुआ था, और देव ने मुस्कुराते हुए वैभवी का स्वागत किया।

देव (मुस्कुराते हुए): "सॉरी वैभवी, सुबह के लिए मुझे माफ कर दो। दरअसल, पढ़ी-लिखी पत्नी घर तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती है। और हर मसले का समाधान समझदारी से निकालती है।"

वैभवी भी मुस्कुराते हुए देव के पास जाती है, और उसके सिने पर सिर रखकर कहती है, "देव, आज मैं बहुत खुश हूं। परिवार सिर्फ पति का नहीं, बल्कि पत्नी का भी होता है।"

कुछ देर में, वैभवी अपने घर पहुंच जाती है। उसका दिल सुकून से भर जाता है, क्योंकि उसे यह एहसास हो जाता है कि उसने सही किया था, और उसने न सिर्फ अपने रिश्तों को बचाया, बल्कि खुद को भी एक नए रास्ते पर चलने की शक्ति दी थी।

लेखिका-अल्पना सिंह

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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